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Sunday, October 15, 2023

तमाशा










फसादों में उलझे हो, न जीते हो न जीने देते हो,

जिंदा हो मगर मौत का खेल खेलते हो।

तुम्हें मालूम नहीं फर्क - निर्दोष और दोषी का,

तुम्हें आता है सिर्फ खेल बर्बादी का।


देकर बलि कमज़ोर और मजलूमों की,

भरते हो दम सच्चाई और खुदाई का। 

चाहे नाम लो किसी भी ऊपर वाले का,

दुश्मन इंसानियत के हो तुम,

सही मानों में तुम ही हैवान हो;

और तुम्हारा ऊपरवाला - नकारा, बेगैरत,

जिसकी खुदाई के नाम पे चलता है,

तुम्हारा ये कारोबार हैवानियत का।


इससे तो बेहतर थे हम जानवरों के मानिंद,

बस एक भूख ही अपना खुदा था।

चलो कर दो अंत तुम्हारी-हमारी इस बीमार नस्ल का, 

होगा तभी शायद सृजन एक नए मकबूल नस्ल का।


तमाशबीनों ये तमाशा देखते रहो, 

लहू के छींटों का स्वाद लेते हो,

जो आज ये बहता रक्त तुम्हारा नहीं, 

रक्तबिजों का हौसला बढ़ाते हो।

कभी बिकेगा गोश्त तुम्हारा भी इसी मंडी में,

तुम्हारी जिंदगी की भी लगेगी बोली,

आखिर तुम भी हो एक बिकाऊ समान, इसी बाजारू दुनिया में,

जहां ज़िंदगी सस्ती, मगर उसका तमाशा बिकता बड़ा महंगा है।

 

Thursday, October 25, 2018

रावण को जलाने में इतने मसरूफ़ हो!




















रावण को जलाने में इतने मसरूफ़ हो के भूल जाते हो,
हम सबके अंदर एक रावण है,
रंगीन मुखौटों के पीछे बेशर्म ख्वाहिशों का अस्लाह है।

रावण को जलाने में इतने मसरूफ़ हो के भूल जाते हो,
सीता हो या राम बदनाम कोई भी हो सकता है,
बस उंगली उठा कर बातों के तीर चलाना बड़ा आसान है।

रावण को जलाने में इतने मसरूफ़ हो के भूल जाते हो,
पटरियों पर दौड़ती भी एक आग है,
ये आग जो गुज़र जाए ज़िंदगियों पर तो परिवार बर्बाद है।

रावण को जलाने में इतने मसरूफ़ हो के भूल जाते हो,
हर एक पत्थर सेतु बंधन में एक किरदार है,
आंकड़ों की भीड़ में कुचल जाए जो वो भी इंसान है।

रावण को जलाने में इतने मसरूफ़ हो के भूल जाते हो,
हर उपदेश के पीछे एक कहानी है,
मैं कब कहता हूं, किसे कहता हूं और क्यूं कहता हूं, 
वो जानना ज़रूरी नहीं, समझ आए तो बेहतर,
वरना मैं कोई भगवान नहीं।।

Wednesday, November 4, 2015

रंग बदलते हैं! (Colors Change)



किसी को पसन्द हरा तो किसी को केसरिया, छुरे पे मगर सबके धार है तेज़,

नापसन्द है उन्हें बस मेरा सफ़ेद कुर्ता, लाल रंग से वो चाहते हैं इसे रंगना।

शुक्र है लहू पे रंग कोई चढ़ता नहीं, वरना बदल देते उसे भी वो मेरे नाम पर,

अस्पतालों में होता ये नया तरीका खून के मिलान का।

किसी को नापसन्द है मेरा खाना तो किसी को मेरा पहनावा,

होती है मेरी लाशों का ढ़ेर लगाकर उनकी संस्कृती की रक्षा।

किताबें वही हैं, बातें वही हैं, बस ऊपर जिल्द का रंग है बदलता,

मुझ काफ़िर का सर कलम करना ही है हर धर्म की शिक्षा।

कहते है विकास हुआ है मानव समाज का,

मगर उन्हें अब भी किसी की रोटी तो किसी की बेटी छीनने से फ़ुरसत नहीं।

दौर है आजकल पुरस्कारों का, किसी को देने का तो किसी को लौटाने का,

बस मेरे हाथ आया है ये पत्र तिरस्कार का।

कौन ग़लत, कौन सही, ये प्रश्न बहुत मुश्किल नहीं,

युगों से खिंची है सुर्ख़ लकीरें मेरे पटल पर, इसके जवाब में।

पूर्वजोँ की शक्ल में आँख, कान और मुँह बंद कर दिए मेरे,

स्वतंत्रता बस नाम की, गयी नहीं कहीं मनसिक परतंत्रता।

हर प्रश्न पे शब्द पत्थरों के मानिंद फेंके गए मुझपे कई हर ओर से,

सहिष्णुता के नाम पर है व्याप्त, ये कैसी असहिष्णुता।।