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Sunday, May 29, 2011

क्यूँ जिंदा?!



क्यूँ हूँ मैं जिंदा अब तक?
शायद मुझे चाहत है ज़िन्दगी की,
या शायद ज़िन्दगी को मेरी चाहत है!
या फिर मजबूरी है ये दुनिया की,
मुझे झेलने की, मेरे वजूद से कुछ फायदा लेने की!!

ये इल्ज़ामात गैरों पे लगाना फज़ूल है,
मेरी ज़िन्दगी किसी की अमानत तो नहीं,
ये तो वो गलती है जो मेरे वालिद ने की,
और मैंने गुज़ारी है!
अब खत्म करें भी तो करें कैसे इसे?
जिम्मेदारियों के बोझ तले यूँ दबा हूँ मैं,
नहीं टूटती ये जो ज़िन्दगी की मज़बूत बेड़ियाँ हैं!!

ये मेरी ही कमज़ोरी है,
या मेरी नासमझी है...
जो जिंदा हूँ मैं अब तक,
ज़िन्दगी जब नहीं प्यारी है!
मौत का ये बेवकूफाना इंतज़ार कैसा,
जब ज़िन्दगी और मौत मेरी ही मुट्ठी में हैं!
अब देर कैसी मेरी महबूबा को गले लगाने में,
मौत की खुशनुमा पनाहों में जाना है!!

न जी सका मैं किसी के लिए,
ना ही मर सका मैं अपने सुकून के लिए!
ये क्या कशमकश है,
ज़िन्दगी और मौत की ये कैसी रस्साकशी है?!
चन्द कदम ही तो अब मुझे उठाने है,
ज़िन्दगी से मौत की ओर...
ये तो बस आज और कल की सच्चाई है!!!

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